भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग ।

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                     ~~श्री हरि~~


 जन्म मरन सब दुख सुख भोगा । हानि लाभु प्रिय मिलन बियोगा ।
काल करम बस होहिं गोसाई । बरबस राति दिवस की नाई ।।
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं ।।


( अयोध्याकाण्ड 149/3)
         राम राम बंधुओं, सुमंत्र जी राम , लक्ष्मण व सीता को वन में छोड़कर उनके बिना अयोध्या लौट आते हैं , महाराज दशरथ सब के बारे में पूछते हैं और कहते हैं कि मुझे वहाँ ले चलो जहां राम , लखन व जानकी हैं । सुमंत्र जी उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि महराज ! जन्म मृत्यु , सुख दुख भोग , हानि लाभ , प्रिय का मिलना व बिछुड़ना ये सब काल और कर्म के अधीन रात व दिन की तरह बरबस होते रहते हैं ।बेसमझ लोग सुख में प्रसन्न तथा दुख में रोते हैं जबकि धीर जन दोनों को समान समझते हैं ।
         मित्रों , धीर ब्यक्ति हर परिस्थिति में समान रहता है पर घीरता तो उन्हीं को आती है जो रघुबीर के साथ हैं या रघुबीर जिनके साथ हैं अतएव रघुनाथ का साथ करें अस्तु जय रघुनन्दन जय सियाराम ।

भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग ।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रूज सोक बियोग ।।


          राम राम बंधुओं, गरूड़ जी के राम कथा सुनने के बाद काकभुसुंडि से यह पूछने पर कि यह काक शरीर आपने कैसे पाई , काकभुसुंडि जी कहते हैं कि मेरा पहला जन्म अयोध्या में हुआ था उस समय कलियुग चल रहा था ।इस कारण सब लोग वर्णशंकर और मर्यादा हीन हो गये थे । वे पाप करते थे इसके परिणाम स्वरूप दुख , भय , रोग , शोक व वियोग पाते थे ।
       मित्रों , जब आप मर्यादा का त्याग कर देंगे और मर्यादा हीन आचरण करेंगे तो परिणाम में दुख , रोग व शोक ही प्राप्त होंगे । इस कलियुग में भी इन दुखों से बचना चाहते हैं तो राम जी को पकड़े , कारण राम जी मर्यादा है , मर्यादा पुरुषोत्तम हैं अस्तु जय राम जय राम जय जय राम ।

सुमति कुमति सब के उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ।
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।


( सुंदरकांड 39/3)
  राम राम बंधुओं, हनुमान जी लंका जला कर राम जी के पास लौट आए है । पहले मंदोदरी रावण को समझाती है , अब बिभीषण उसे समझाते हुए कहते हैं कि नाथ ! वेद पुराण ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि व कुबुद्धि सब के ह्रदय में रहती है । जहाँ अच्छी बुद्धि है वहाँ हर प्रकार की संपदा रहती है तथा जहाँ खोटी बुद्धि का वास होता है वहाँ परिणाम में विपत्ति अर्थात् दुख रहता है।
               मित्रों , आपके ह्रदय में , मन में राम जी का वास है ,राम चिंतन है , राम प्रियता है तो समझिए आप सुबुद्धि रखते हैं और जीवन केवल उलझनों तथा कलह में बीत रहा है तो आत्मचिंतन करने की ज़रूरत है ? अस्तु सुख चाहते हैं तो सुखनिधान को अपनी मति में पधराएं एवं राम जी को अपनाएँ अतएव श्रीराम जय राम जय जय राम 🚩🚩🚩

भाँय कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।।
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा । करउँ नाइ रघुनाथहिं माथा ।।


( बालकांड 27/1)
 राम राम बंधुओं , श्रीराम नाम महिमा का वर्णन करते हुए गोस्वामी जी मानस के आरंभ में कहते हैं कि चाहे अच्छे भाव से या बुरे भाव से , क्रोध से या प्रमाद से , किसी भी तरह से राम नाम जपने से हर ओर से कल्याण होता है । उसी राम नाम का स्मरण कर और राम जी को शीश नवाकर मैं राम जी के गुणों का वर्णन करता हूँ ।
                   मित्रों , श्रीराम नाम मंगलकारी है , कल्याण करना इसका गुण है । इसको लेने की कोई विधि नहीं , नियम नहीं , आप जैसे चाहें ले । इसी राम नाम को लेकर तुलसीदास जी इतना बड़ा ग्रंथ लिख गये इस नाम की यही महिमा है । आप अभी भी सोच रहें हैं , आगे पीछे कुछ न सोचें बस राम नाम लें अतएव भज श्रीरामम् , भज श्रीरामम्

तत्व प्रेम कर मम अरू तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं ।।


( सुंदरकांड 14/3-4)
            जय सियाराम बंधुओं, हनुमान जी राम जी द्वारा दी गई मुद्रिका को सीताजी के सम्मुख गिरा देते हैं , माँ मुद्रिका पाती हैं , हनुमान जी सब बताते हैं , सीता जी राम जी का हाल पूछतीं हैं , हनुमान जी राम जी का संदेश देते हुए कहते हैं कि राम जी ने कहा है कि तुम्हारे व मेरे प्रेम का मर्म मेरा मन जानता है और वह मन सदैव तुम्हारे पास रहता है ।मेरे प्रेम का सार इतने में आप समझ ले ।
                       मित्रों , राम जी ने सीताजी को अपना मन दे दिया , मां इस बात को समझ गई और मगन हो गई । हमने आपने अपना मन अपने पास रखा हुआ है , दूसरे जगहों पर लगा रखा है इसलिए राम जी हमसे प्रसन्न नहीं है । राम जी को आप प्रेम करते हैं , उन्हें प्रसन्न करना चाहते हैं तो अपना मन उन्हें दे दें अस्तु सीताराम जय सीताराम ।
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