जीवन से जुड़ी प्रेरणा दायक बाते। भाग 14
जीवन से जुड़ी प्रेरणा दायक बाते
मनुष्य – जन्म
कठिनाई से धरा पर मोक्ष प्राप्ति हेतु साधन रूप मानव देह पाकर यदि विषयों के प्रति आसक्त हुआ तो वह आत्मद्रोही ठगा ही गया ।
जो प्राणी मृदु और सरल होते हैं तथा स्वभाव से ही सन्तोषी होते हैं , वे मनुष्य गति को प्राप्त करते हैं ।
मनुष्य जन्म के बिना अन्यत्र धर्म प्राप्त नहीं हो सकता अतः मनुष्य भव की प्राप्ति सब भवों में श्रेष्ठ है ।
जिस प्रकार मनुष्यों में राजा , मृगों में सिंह और पक्षियों में गरूड़ श्रेष्ठ है ; उसी प्रकार सब भवों में मनुष्य भव श्रेष्ठ है ।
जिस प्रकार तृणों में धान , वृक्षों में चन्दन और पत्थरों में रत्न श्रेष्ठ है ; उसी प्रकार सब भवों में मनुष्य भव श्रेष्ठ है । जैसे समुद्र जल में पतित महामूल्य रत्न का प्राप्त होना दुर्लभ हो जाता है , वैसे ही नष्ट हुए मनुष्य जन्म की पुनः प्राप्ति भी दुर्लभ है ।
महान् पुण्यों के मूल्य से मानव शरीर रूपी नौका की प्राप्ति हुई है । अतः जब तक यह नौका विदीर्ण न हो जाय , तब तक दुःख सागर से पार होने का प्रयास करना चाहिए ।
जो व्यक्ति प्रमादवश मनुष्य – जन्म को व्यर्थ गँवा रहा है , वह अज्ञानी मनुष्य स्वर्ण – थाल में मिट्टी भर रहा है , अमृत से पैर धो रहा है ,
श्रेष्ठ हाथी पर ईंधन ढो रहा है और काग उड़ाने के लिए चिन्तामणि रत्न फेंक रहा है तीन लोकों में श्रेष्ठ एवं समस्त इन्द्रियों को सुख देने वाला धर्म मनुष्य जीवन में ही किया जाता है , इसलिये मनुष्य देह ही सर्वश्रेष्ठ है ।
जिन मनुष्यों में न विद्या है , न तप है , न दान की भावना है , न ज्ञान है , न शील है , न जीवन में उत्तम गुण है और न धर्म है ; वे पृथ्वी पर भार रूप पशु ही हैं , जो मनुष्य की तरह विचरा करते हैं ।
जो मनुष्य साहित्य , संगीतशास्त्र और कलाओं से अनभिज्ञ हैं , वह बिना पूँछ और सींग का पशु ही है ; यह मनुष्य रूपी पशु बिना घास खाये ही जीवित रहता है ।
यह प्रकृति पशुओं के लिए बड़े सौभाग्य की बात है , अन्यथा यह पशुओं का चारा और घास ही समाप्त कर देता ।
रसना इन्द्रिय को छोड़कर सभी का एक काम है । रसना के तीन काम हैं – भजन , भोजन और भाषण ।
भोजन व भाषण तो तिर्यंच व जानवर भी कर सकते हैं , परन्तु भजन मनुष्य – जन्म के सिवाय नहीं हो सकता । सिन्धु जितना समय इस जीव ने बिताया है ।
मात्र बिंदु जितना जीवन यह मनुष्य जन्म का है । यह बिंदु जितना समय सिंधु जितने समय को सफल बनाने की क्षमता रखता है ।
दुर्लभ मानव जीवन को व्यर्थ में गँवाना अज्ञानता की परम निशानी है ।
दुर्लभ मानव शरीर की विदाई से पूर्व हम अपने पापों की विदाई का समारोह वैसे ही कर दें जैसे शरीर की स्वच्छता हेतु स्नान के द्वारा अपने मैल को विदाई दे देते हैं ।
अगर किसी को विकारों का मजा ही लेना है तो फिर इसमें मनुष्य – जन्म की क्या जरूरत ? इसमें कितनी जिम्मेदारियाँ व परेशानियाँ हैं ?
सुअर , गधा , घोड़ा बन गये तो फिर न शादी की चिन्ता , न बच्चों की जिम्मेदारी , न आयकर वालों की परेशानी । बस , भोग ही भोग , मजा ही मजा है न ?
तू माया में फँसा , ममता में मारा गया , तृष्णा में बहा , आशा में उलझा , विषयों का गुलाम बना । देख रे चेतन ! अनमोल मानव जीवन व्यर्थ की विडम्बनाओं में व्यतीत हो रहा है ।
एक रात्रि की मुसाफिरी करना हो तो कितनी चिन्ता करते हो । जीवन भर की मुसाफिरी की हमें कोई चिन्ता नहीं । भगवान बनने लायक इस मनुष्य – जन्म को हम भाग्यवान बनाने में पुरुषार्थ कर रहे हैं ।
महापुरुष
विपत्ति में धैर्य , अभ्युदय में क्षमा , सभा में कौशलपूर्ण वाणी , युद्ध में विक्रम और श्रुति में रूचि ; महापुरुषों के ये लक्षण उन्हें प्रकृति से प्राप्त है ।
सूर्य उदित होते समय भी लाल रहता है और अस्त होते समय भी । महापुरुषों की सम्पत्ति और विपत्ति दोनों में एकरूपता होती है ।
धीर पुरुषों का स्वभाव यह होता है कि वे आपत्ति के समय और भी दृढ़ हो जाते हैं । जो दूसरों की निन्दा में मूक है , परस्त्री के मुखदर्शन में अन्धा है और पर धन हरण में अपाहिज है , वह लोक में महापुरुष है ।
महापुरुष अपने सुख में अत्यन्त आह्लादित नहीं होते हैं , दूसरे के दुःख में खुश नहीं होते हैं , देकर पश्चाताप नहीं करते हैं और डींगें नहीं हाँकते हैं ।
महापुरुषों की बड़ी विशेषता यह है कि अपने गुणों को स्वयं नहीं कहते और दूसरे के प्रकट दोषों को छिपाकर रखते हैं । महापुरुष अपना चरित्र निर्मल होने पर भी अपना दोष ही सामने रखते हैं ।
अग्नि का तेज प्रज्वलित होने पर भी वह पहले धुआँ ही प्रकट करती है ।
महात्माओं का चित्त सम्पत्ति में कमल की भाँति कोमल होता है । परन्तु वही विपत्ति के समय बड़े पर्वत की चट्टानों के समूह की भाँति कठोर हो जाता है ।
महापुरुषों में व सज्जनों में वैसे कम मिलते हैं , जिनके मित्र , शत्रु और उदासीन नहीं होते हैं । साधारण मानव वातावरण से बनता है ।
असाधारण मानव वातावरण को बनाता है महान् व्यक्ति न तो किसी का अपमान करता है और न ही सहता है । महापुरुषों की कार्यसिद्धि उनके साहस और उत्साह से होती है ।
महान् होना अच्छा है , मगर अच्छा होना सच्ची महानता है । महान् लोग महान् विचारों से जीवित रहते हैं । ।
माँ
जो पुत्र माता – पिता के पैरों का प्रतिदिन प्रक्षालन करता है , वास्तव में उसके प्रतिदिन गंगास्नान ही होता है ।
जिसकी माँ घर में नहीं है , तथा पत्नी अप्रियभाषिनी हैं , उसे जंगल में चला जाना चाहिए ।
क्योंकि उसके लिए जैसा वन है , वैसा ही घर है । मनुष्य तभी वृद्ध होता है , तभी दुःखित होता है और तभी उसके लिए जगत शून्य होता है , जब उसे माँ का वियोग होता है ।
गुरुपत्नी , राजपत्नी , भाभी , पत्नी की माता और अपनी माता ये पाँच प्रकार की माताएँ हैं ।
माँ के समान छाया नहीं , माँ के समान कोई कोई त्राता नहीं और माँ के समान कोई प्रपा ( प्याऊ ) नहीं है ।
माँ कुक्षि में धारण करने से धात्री , जन्म देने से जननी तथा अंगों को बढ़ाने से अम्बा कहलाती है ।
सुपुत्र के लिए वहीं गंगा है , वहीं गिरनार और पुष्कर तीर्थ है ; जहाँ माता – पिता रहते हैं ।
माता भूमि से भी अधिक गुरुतर है , पिता आकाश से भी अधिक ऊँचे हैं ,
मन वायु से भी अधिक तीव्र गति वाला है और चिन्ता तृण से भी हल्की है ।
माता – पिता पुत्र के प्रति जो सर्वदा स्नेहपूर्ण व्यवहार व उपकार करते हैं , उसका प्रत्युपकार सहज ही नहीं चुकाया जा सकता ।
दरिद्र हो , रोगी हो या देशान्तर गया हो ; माता के दर्शन मात्र से व्यक्ति परम सुख को प्राप्त करता है ।
पुत्र के लिए माता का हस्तस्पर्श प्यासे के लिए जलधारा के समान होता है ।
बीमार आदमी सर्वप्रथम व बार – बार जो शब्द बोलता है वह है ‘ माँ ‘ ।
माँ के ममत्व की एक बूंद भी अमृत से मीठी है ।
माया
माया का रूप है निराला , बाहर उजाला भीतर काला ।
दगाबाज की दो निशानी , ऊँची गर्दन , मीठी वाणी । मायाचार करना तिर्यंच गति को निमंत्रण देना है ।
तिर्यंचगति यानी प्रतिकूलता में जीना व पाप का भुगतान करना है ।
कुटिलता के पास व्यवहारिकता हो सकती है , धार्मिकता नहीं ।
आदमी असलियत छुपाने में कलाकार है ।
मित्र
परदेश में विद्या मित्र है , स्त्री घर में मित्र है , रोगी के लिए दवा मित्र है और मरने पर धर्म मित्र है ।
हजारों दोस्त बनाना कोई करिश्मा नहीं । करिश्मा तो यह है कि एक ऐसा दोस्त बनाया जाए जो उस वक्त तुम्हारे करीब हो , जब हजारों दोस्त तुमसे दूर हों ।
बात – बात में जिसे ‘ बुरा ‘ लग जाता हो और छोटे – छोटे प्रसंगों में जो ‘ रूठ ‘ जाता हो उसे जीवन में ‘ मित्र ‘ बनाने से पहले लाख बार विचार करना ।
रोगी , निर्धन , परदेशी और शोक पीड़ित मनुष्य के लिए मित्र का दर्शन औषधि रूप है ।
मित्र तो वही है जिस पर पिता की भाँति विश्वास किया जा सके , दूसरे तो साक्षी मात्र है ।
सबको ‘ मित्र ‘ नहीं बना सकते ? कोई बात नहीं । शत्रु एक को भी मत बनाना ।
जिसका कोई विरोधी नहीं , उसका कोई मित्र भी नहीं होता ।
मुस्कान
जो हर्षित है , वह स्वयं भी प्रसन्न रहता है और दूसरों के चेहरे पर भी मुस्कान ले आता है ।
चेहरा देना कुदरत का काम है , उसे सुन्दर भाव देना आपका ।
आप हर पल मुस्कुराइये , आपकी यह मिठास सबको सुकून देगी ।
हर दिन , हर कार्य की शुरूआत मुस्कान से कीजिये ।
आपकी मुस्कान ईश्वर को चढ़ाए गये फूल के समान है । मुस्कुराने से आधे दुःख दूर हो जाते हैं ।
सौंदर्य के लिए , हर्ष जैसा प्रसाधन नहीं । मुस्कान मुख का इंद्रधनुष है ।
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