दुख की बदरिया में सुख का नज़रिया ।

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 दुख की बदरिया में सुख का नज़रिया 

जमीन में हम जैसे बीज बोते हैं , वैसा ही अंकुर उगता है यदि गुलाब बोया जाता है तो गुलाब ही खिलता है और कैक्टस बोया जाता है तो कैक्टस उगता है ।

यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम क्या बोते हो ? संत कहते हैं कि ऐसा न केवल जमीन में होता है बल्कि आदमी के मनोमस्तिष्क में भी होता है ।

हम अपने मनोमस्तिष्क में जैसे विचारों का बीजारोपण करते हैं , वही विकसित होता है । यदि सद्विचारों का बीजारोपण है तो निश्चित रूप से सद्गुणों के गुलाब महकेंगे और दुर्विचारों का / बुरे विचारों का बीजारोपण करते हैं तो बुराइयों के कैक्टस प्रकट होते देर नहीं लगती ।

हम अच्छे विचारों का अपने अंदर आरोपण करें । सोच को परिवर्तित करने का एक ही तरीका है कि हम हर चीज को सकारात्मक तरीके से देखने की कोशिश करें ।

यदि सकारात्मक तरीके से देखने की प्रवृत्ति हो जाती है तो व्यक्ति नुकसान में भी लाभ देख लेता है और नकारात्मक तरीके से देखता है तो लाभ में भी व्यक्ति को नुकसान दिखायी पड़ता है और व्यक्ति अपना जीवन दुखी बना लेता है । जिस – जिस का नजरिया सकारात्मक है , वह दुख में भी सुख प्रकट करता है और जिस – जिस का नज़रिया नकारात्मक है , वह सुख के क्षणों को भी दुखी बना लेता है ।

यह हमारे ऊपर है कि हम अपने जीवन को कैसा बनाना चाहते हैं , हम जैसा चाहेंगे , वैसा ही जीवन बनेगा क्योंकि सारा संसार हमारी अपनी सोच का प्रतिबिम्ब है । जैसा हम सोचेंगे , वैसा ही हमें सब कुछ दिखने लगेगा । 

इसलिए हम अपनी सोच को निर्मल बनाने की कोशिश करें , अपने नजरिये को ठीक रखने की कोशिश करें , हमारा सोच जैसा होगा हमारा जीवन वैसा बनेगा । 

मौज – मजा – मस्ती , सोच कितनी सस्ती 

तीन प्रकार की सोच है- एक है भौतिक सोच , दूसरी व्यावहारिक सोच और तीसरी आध्यात्मिक सोच ।

भौतिक सोच जिनकी होती है उनके जीवन का केवल एक ही लक्ष्य है , मौज , मजा और मस्ती । वे सदा मौज मस्ती के चक्कर में ही लगे रहते हैं उनको उससे आगे और कुछ लेना – देना नहीं होता ।

इन लोगों का जीवन स्तर बहुत उथला होता है । ऐसे लोग केवल दृश्य जीवन के बारे में सोचते हैं उसके आगे के जीवन के नहीं , और भोगवादी मनोवृत्ति से ग्रसित हो जाने के कारण इनके जीवन में दुखों का अम्बार लग जाता है ।

संत कहते हैं कि भौतिक सोच से ग्रसित व्यक्ति सदैव कैलकुलेटिड विकास से चलता है , वह अपने लाभ की सोचता है , इसके लिए दूसरों का चाहे कितना नुकसान हो जाये , उसे कुछ लेना – देना नहीं । 

भौतिक सोच मनुष्य की चिंतनधारा को संकीर्ण बनाती है और उसकी मनोवृत्ति स्वार्थ की बन जाती है । जहां स्वार्थ और संकीर्णता होती है वहां व्यक्ति जीवन में कभी कामयाबी हासिल नहीं कर सकता । इनकी अपनी प्रगति ही धीरे – धीरे खिसकती रहती है । इसलिए भौतिक सोच बहुत अच्छी सोच नहीं।

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