ध्यान क्यों ,ध्यान कब और कैसे करें ।

ध्यान क्यों ,ध्यान कब और कैसे करें ।

ध्यान क्यों
- जितने भी लोग अलग अलग योग केन्द्रों , संस्थानों से जुड़े हुए हैं , जो आसन प्राणायाम का नित्य आम्यास करते हैं , उन्हें कुछ न कुछ तो लाभ होता है , तभी वह वहाँ जाते हैं । निद्रा का त्याग कर के प्रातः शीघ्र पहुँचते हैं , ऐसे तो कोई प्राणी भी समय बर्बाद नहीं करता ।
- स्वास्थ्य में सुधार आए या मन एकाग्र हुआ हो या शान्ति प्राप्त होती हो इसलिए आसन प्राणायाम अच्छे नतीजे ला रहे हैं । परिणाम आशा से अधिक अच्छे हैं । योग के नियमों पर चलने से एक अच्छा योगी बन सकता है ।
- शांति मिलती है और फोकस बढ़ता है
- अगर योगी न बने तो कुछ न कुछ उधार की और अग्रसर होगा । जीवन का कुछ मार्ग निकलता है ।
योग के आठ अंग हैं
- यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि । हमें योग के आठों अंगों का थोड़ा – थोड़ा अभ्यास करना चाहिए । योग का लक्ष्य है , परमात्मा की अनुभूति , परमानन्द की • प्राप्ति । केवल आसन – प्राणायाम से सम्भव नहीं हैं ।
- इसके लिए अष्टांग योग पर चलना आवश्यक है । जीवन में सुख दुख आते – जाते हैं । धूप के साथ छाया , धन के साथ निर्धनता , रात के साथ ब्रह्ममहूर्त , देवताओं के संग राक्षस सुख – दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
- दो 14 sides हैं । आते हैं , जाते हैं । सदा टिकने वाला कोई नहीं है । दुनिया , यह जगत क्षणभंगुर है , द्वान्द्वात्मक है , नाशवान है । दुनिया की जो चीज़ भी हम प्राप्त करें , वह रहने वाली नहीं है । उस से प्राप्त सुख भी क्षणभंगुर और नाशवान होगा ।
- श्री ” कृष्ण जी ” ने श्री गीता जी में जैसे कहा है कि स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति कहीं भी किसी भी परिस्थिति में घबराता नहीं है । स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति , राग द्वेष , भयक्रोध और डर से मुक्त होता है । संसार में हम जितनी भी धन – दौलत मान सम्मान , बड़े से बड़ा पद प्राप्त कर लेते हैं , उससे मिलने वाला सुख तनिक मात्र होगा ।
- मिठाई – फल खाने से आप को आनन्द आ रहा है परंतु कब तक ! अन्त में आप ऊब जायेंगे । ऊब जाने पर सुख दुख में बदल जायेगा । यह जो साँसारिक सुख हैं , वह शरीर और मन के स्तर ( level ) पर अनुभव महसूस किया जाता है
- परंतु ध्यान का आनन्द आत्मा के स्तर पर महसूस किया जाता है । शरीर और मन दुनिया की अस्थाई चीजें है । रहने वाली नहीं हैं । यह सब परिवर्तनशील हैं । जो लोग ध्यान की गहराई में गए हैं समाधि में उत्तरे हैं , उन्होंने महसूस किया है कि शरीर और मन से परे आत्मा का स्तर है । वहां कुछ बदलने वाला नहीं है ।
- वहां पर हमें जिस आनन्द , सुख की अनुभूति होती है – वह स्थायी है – वह परिवर्तन शील नहीं है । शाश्वत है । कोई दुख – सुख कोई उत्तार चढ़ाव नहीं कर सकता । कोई विचलित नहीं कर सकता । यह अनुभव उन को हुए , जो ध्यान की गहराई में उत्तरे हैं । वहां पहुंचने के लिए एक बड़ा ही वैज्ञानिक तरीका हमारे ऋषि – मुनियों ने बताया है । पाँतजलि का अष्टांग योग , एक ऐसा ही मार्ग है । यह मार्ग बहुत ही वैज्ञानिक मार्ग है ।
- हम जीवन की Materialistic दौड़ में जितनी भी भाग – दौड़ कर लें धन – दौलत या और समान जितना भी इकट्ठा कर सकते हैं कर लें , फिर भी अशांति और वेचैनी में ग्रस्त हैं । हर समय अशांति छाई रहती है । इस का कारण है कि हम सब परमात्मा से आए हैं और जब तक वहां नहीं पहुंच जाते , तब तक वेचैनी ही रहेगी ।
- जैसे नदी , समुद्र से उठने वाली भाप , जो वर्षा और बर्फ के रूप में जमीन पर आती है , जब तक फिर समुद्र में विलीन नहीं हो जाती बेचैन रहती है । मानों हम उसे बाँध बना कर रोकें तो भी टकराती रहेगी । कब तक टकराती रहेगी ।
अपनी मंजिल पर पहुंचने तक ध्यान यह एक वैज्ञानिक पद्धति है । जिस दौर से हम गुजर रहे हैं , यह science का युग है । आज के मनुष्य के लिए ध्यान पद्धति , दूसरी पद्धतियों भक्ति , वैराग्य आदि से अधिक अनुकूल हैं । यही कारण है कि योग – ध्यान अधिक लोकप्रिय होते जा रहे हैं । आसन प्राणायाम तक ही रूक जाते हैं । आगे बढ़ेंगे तो ध्यान की गहराई में जायेंगे ।
ध्यान कब और कैसे करें ।
- ध्यान या कोई भी अध्यात्मिक साधना हो , उसके लिए सब से उत्तम समय है ब्रह्मबेला ( ब्रह्ममहूर्त ) । सूर्य निकलने के दो घंटे पहले यानि 6 बजे के भीतर – भीतर क्योंकि इस समय प्रकृति शान्त , मधुर और मौन होती है । कोई गाड़ियों का शोर नहीं होता । धूल नहीं होती । चारों तरफ वातावरण शान्त मिल जाता है ।
- रात की निद्रा के बाद , मन भी शान्त होता है । अगर आप ” ब्रह्मबेला ” का उपयोग न कर सकें तो सन्ध्या बेला यानि शाम का समय भी प्रयोग कर सकते हैं । जब मन सध्या जाता है , तब कभी भी गहराई में उत्तर सकते हैं । श्री राम कृष्ण परमहंस जी ” और श्री शिर्डी ” सांई बाबा जी ” बात करते ब्रहम अवस्था में होते थे ,
- हम यूं कह लें तो बहुत ही अच्छा हो कि वह रहते ही 24 घण्टे ब्रह्म अवस्था में थे
ध्यान कैसे करें
इस की नाना प्रकार की विधियां हैं ( Techniques ) हैं । आते – जाते श्वास पर ध्यान , शरीर में होने वाली क्रिआयों या विचारों पर ध्यान , भृकुटि पर ध्यान , नासिका के अग्रभाग पर ध्यान , ध्यान चक्रों पर ध्यान । शुरू में साधक को कई विधियो पर अभ्यास करना चाहिए ।
जो विधि सरल समझें , उपयुक्त समझें , उसी पर टिक जाएं । जिस विधि से मन को शांति मिले , वही विधि अपना लेनी चाहिए और अभ्यास प्रतिदिन करना चाहिए । ध्यान करने से पहले कुछ शारीरिक अभ्यास करें । फिर कुछ प्राणायाम क्रिया करें ।
ध्यान के लिए यह सब ज़रूरी है ताकि मानसिक एवं शारीरिक थकावट या निद्रा तंग न करे , विघ्न न डाले । मन बहुत ही चंचल है । यह बात तो हर मनुष्य जानता है । यह मछली की तरह , एक मिन्ट भी कहीं टिकने नहीं देता । नियमित अभ्यास और वैराग्य द्वारा ( De tachment ) द्वारा धीरे – धीरे काबू पाया जा सकता है । श्री कृष्ण जी ” गीता जी में बार – बार दोहरा रहे हैं ( बता रहे हैं ) शुरू में कामयाबी न मिले तो घबराना नहीं चाहिए ।
ध्यान किस लिए करें
ध्यान करने वाले साधक या योगी का मन शान्त होता है । मन स्थिर हो जाता है । मानसिक एवं शारीरिक लाभ भी होते हैं । सुख – दुख उसे विचलित नहीं कर सकते । उसे परेशान नहीं कर सकते क्योंकि वह स्थिर हो चुका होता है ।
सुख – दुख की परिभाषा जान चुका होता है । वह न दुख में घबराता है न सुख में खुश होता है । संसार में जो कुछ भी हो रहा है , वह दुष्टा भाव से देखता है । वैज्ञानिकों ने Experiments कर के देखा है कि ध्यान की साधारण अवस्था में भी मस्तिष्क में ” अल्फा ” तरंग चलने लगती है ।
जिससे साधक को शान्ति और आनन्द का एहसास होने लगता है । हमारे शरीर की सोई हुई ग्रन्थियां भी जागृत हो जाती हैं । आज का युग तनाव और Race Tension का युग है । इसलिए ध्यान की युक्ति बहुत लाभकारी और आवश्यक है ।
जिससे हमारे जीवन में सुख और शान्ति का वास हो जाता है । कुछ विस्तार से उदाहरण मान लो मनुष्य सोया नहीं है , जाग रहा है , अपना मकान , गाड़ी जमीन जयदाद , पत्नी बच्चे देख रहा है परंतु रहता बेचैन है । उसे इन सब को देख कर प्रसन्न रहना चाहिए , शान्त होना चाहिए परंतु रहता बेचैनी और घबराहट में है ।
जब सो जाता है , तब सब कुछ गायब हो जाता है , ओझल हो जाता है । कुछ भी दिखाई नहीं देता सत्यता में चला जाता है । जब नींद से उठता है तो कहता है – कभी थोड़ी नींद और आ जाती तो कितना आनन्द होता । कितना आनन्द आ रहा था ।
इसका अर्थ है कि जो वस्तुए दिख रहीं है , वह सब नाशवान हैं तो नाशवान में शान्ति कहां । जो नहीं दिख रहा था वह शाश्वत था । उस में सुख ही सुख था इसलिए हमारे भारतीय ऋषियों ने सोचा कि अपने अन्दर जा कर देखें अन्दर में प्राप्त होने वाला सुख भी क्षणभंगुर तो नहीं है परंतु अन्तर जगत की यात्रा के बाद जिस आनन्द के स्त्रोत का पता लगाना भारत की सब से बड़ी देन है ,
यह महसूस हुआ कि हमारे अन्दर एक ऐसे तत्व का निवास है जो अपरिवर्तनशील ( न बदलने वाला ) चेतन और आनन्दमय है । उन्होंने इसे ‘ सच्चिदानन्द ‘ या फिर सत्त चित्त आनन्द कहा है । अन्दर की खोज से पता चला कि हम केवल हड्डियों , मांस और मज्जा का पुतला मात्र नहीं हैं ।
हम इससे परे हैं । शाश्वत और आनन्द स्रोत हैं तो हम आनन्द को प्राप्त क्यों नहीं कर सकते । इसकी प्राप्ति में सब से बड़ी बाधा – मन है । मन साथी भी अभिशाप भी और वरदान भी है । इसलिए कहते हैं कि मन और मस्तिष्क के कारण मनुष्य आज पृथ्वी का राजा बना हुआ है । इसकी कृपा के कारण उसने प्रकृति के कई रहस्यों का उद्घाटन किया है । विज्ञान के क्षेत्र में उसने कई उपलिब्धयां की हैं ।
अभिशाप इस लिए कि इसके कारण कष्ट भी सहे हैं । अशान्ति और बेचैनी का मुख्य कारण मन ही है । मन हमेशा विचारों के जाल बुनता रहता है । गहरी निद्रा के वक्त ही , थोड़ी शान्ति मिलती है । गहरे ध्यान में अशान्ति से मुक्ति मिलती है ।
मनुष्य सभी प्राणियों से बुद्धिमान है परन्तु मन की चंचलता के कारण ही सब से अशान्त है । कोई भी जीव मनुष्य की तरह अशान्त और बेचैन नहीं है , परन्तु मनुष्य मानसिक तनाव के कारण ही Hypertension , Blood Pressure , Heart एवं Mental problem से ग्रस्त है ।
दूसरे प्राणियों की ज़रूरतें भी वैसी ही हैं परंतु इतने परेशान नहीं हैं , जितना मानव । इस लिए अभिशाप कहा गया है । ध्यान इस पर काबू पाने का ही नहीं परन्तु इस के पार जाने का बढ़िया वैज्ञानिक तरीका है । इस लिए श्री पातंजलि योग सूत्र में कहा गया है
” योग चित्तः वृत्ति निरोधः ” ।
सम्पूर्ण मन की वृतियों का निरोध , ठहराव या नियंत्रण है । ध्यान , समाधि की पूर्व अवस्था है और सफल ध्यान ही समाधि से परिचित हो जाता है । मन , आत्मानुभूति में बाधा पहुंचाता है । अब प्रश्न है कि मन , दरिया या तालाब की भांति कैसे है ।
इस में विचारों की लहरें , राग द्वेष की लहरें उठती रहती हैं । जब तक यह लहरें उठती रहेंगी , तब तक उस तालाब के अन्तर स्थल में छिपे हुए विराजमान मोतियों को हम देख नहीं सकते । लहरें शान्त हो जाएँ , तब हमें शुद्धतत्व के दर्शन हो जाते हैं ।
यह मन रूपी दर्पण है , यह विचारों , वासनाओं और इच्छाओं की धूली से ढका हुआ है । ऐसे में हम आत्मा के दर्शन नहीं कर सकते । जब तक विचारों की धूलि , वासनाओं की धूलि से दर्पण साफ न हो , तब तक आत्मा का दर्शन सम्भव नहीं हो सकता ।
इसलिए यह सब करने के लिए हमें अन्तरस्थल की गहराई में जाना है । तभी शान्ति प्राप्त होगी । शुद्ध तत्व का दर्शन कर सकते हैं । श्री गुरुदेव जी हमारा मार्ग दर्शन करते हैं । आत्मानुभूति के लिए बहुत से मार्ग हैं । ध्यान योग , भक्ति योग , ज्ञानयोग , कर्मयोग आदि ।
आज के Scientific यानि वैज्ञानिक युग में ध्यान योग सब से उत्तम प्रयोग है । जैसे की Laboratory के अन्दर सांइसदान ( scientist ) Practical experiments करते हैं , ध्यान योग भी पूर्ण उसी तरह है । इस सत्यता को प्राप्त करने के लिए गहराई में उतरने के लिए अष्टांग योग को अपनाना बहुत ज़रूरी है ।
इसके बिना सफलता सम्भव दिखाई नहीं देती । अष्टांग योग पातंजलि ऋषि जी ने आज से हजारों ध्यान कैसे करें 20 वर्ष पूर्व ध्यान विज्ञान का सार अपने सूत्रों में भर दिया था । जैसे गागर में सागर भर दिया है । उनके यह सूत्र इतने वैज्ञानिक और Mathematically डंग के साथ लिखे गए हैं . जिन में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रही है ।
ऐसे तो बहुत सी पुस्तकों में बहुत कुछ वर्णन है . पुस्तक ” हिन्दू धर्म ” की विशेषताओं पर लिखी गई है । परंतु ” पतंजलि कृतयोग एक पलड़े में रख दिया जाए और सब पुस्तकें एक पलड़े में रख दी जायें तो पतंजलि कृत योग का पलड़ा भारी होगा ।
जिस प्रकार से क्रमिक विकास द्वारा मानव के अन्दर प्रसुप्त अध्यात्मिक शक्तियों को करते – करते चरम सीमा तक पहुंचने का वर्णन उपलब्ध है । इसे हम मनोविज्ञान का भी उत्तम , श्रेष्ठ ग्रन्थ कह सकते हैं । पतंजलि अष्टांग योग के आठ अंग हैं । यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धरणा , ध्यान और समाधि ।
ध्यान का वैज्ञानिक तरीके से सीधा संबंध प्रत्याहार और धारणा से है । हम यहां केवल तीनों का वर्णन करेंगे । यम , नियम , प्राणायाम , आसन और प्रत्याहार बाहरी अंग हैं । धारणा , ध्यान और समाधि अंतरिक अंग हैं । प्रत्याहार वहिरंग की अन्तिम कड़ी है ।
प्रत्याहार , ध्यान और धारणा अलग – अलग अंग हैं परंतु वह एक दूसरे से जुड़े हुए हैं क्योंकि ध्यान की प्रक्रिया में एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता । पतंजलि जी के अनुसार इन्द्रियों का अपने विषयों में से संबंध तोड़ना है ।
प्रत्याहार जैसा मैने पहले भी बताया है कि प्रत्याहार 21 दो शब्दों से बना है प्रति + आहार – आहार का अर्थ भोजन है और प्रति का अर्थ है विरोध या उल्टा , प्रत्याहार का शब्दिक अर्थ हुआ विरोध या भोजन न करना ।
अब बात है इन्द्रियों के भोजन की । साधारण भोजन की नहीं । इन्द्रियों का भोजन जिसका संबंध मुंह या जीभ से है । हमारी पांच ज्ञानन्द्रियां हैं – आंख , जीभ , नाक , कान और चर्म ( चमड़ी ) इन का भोजन इस प्रकार से है ।
आंख को ” रूप ” , जीभ को ” रस ” , नाक को ” गन्ध ” , कान का ” शब्द ” ( ध्वनि ) और ” त्वचा ” को स्पेश । बाहरी संसार का ज्ञान इन्हीं से है । प्रत्याहार की वैज्ञानिक क्रिया के द्वारा हम इन्द्रियों का संर्पक बाहर जगत से तोड़ देते हैं । जब हम ऐसा कर सकेंगे तभी अन्दर की यात्रा कर सकेंगे ।
प्रत्याहार से अन्दर की यात्रा का पहला कदम शुरू होता है । जिस चीज की शुरूआत ठीक हो , उस का अन्त भी ठीक होता है । जब तक ज्ञान इन्द्रियों का सर्म्पक बाहर की दुनियां से पूरी तरह नहीं टूटता , तब तक हम अन्दर की यात्रा में सफल नहीं हो पाते ।
ध्यान की सफलता ज्यादा प्रत्याहार पर निर्भर करती है । हम आंखें बन्द कर के बैठ जाते हैं । कान और मुंह बन्द कर लेते हैं परन्तु अन्दर से बाहरी जगत का विचार चलता रहता है । कानों से सुनते रहते हैं तो ध्यान नहीं लग सकता और न ही लग पायेगा ।
संत कबीर जी ने अपनी वाणी में फरमाया है ।
। माला तो कर में फिरे जीभ फिरे मन मांहि ! मनुआ तो चहुं दिशि फिरे – यह तो सुमरिन नांहि जब तक हमारा मन इधर – उधर भाग रहा है , भटक रहा है , तब तक हम अन्दर की गहराई में नहीं उतर सकते ध्यान नहीं लगा सकता ।
जिस वस्तु पर हमारा ध्यान है , धारणा है , जब तक उसमें राम नहीं जाते तब तक ध्यान कैसे लग सकता है ।
धारणा
धारणा से ध्यान और समाधि होती है । यह योग का छठा अंग है चित्त को किसी एक देश या एक विशेष वस्तु में स्थिर करने का नाम धारणा है ।
किसी एक ध्यये स्थान में चित्त को बांध देना लगा देना धारणा कहलाता है । शुरू शुरू में बाहरी विषयों पर धारणा करना ही ठीक है ।
हमारी इन्द्रियों की जो सहज वृत्ति है , वह बाहर मुखी है । हजारों व्यक्ति ध्यान करने और समाधि लगाने की कोशिश करते हैं परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिलती । इस का कारण है कि समाधि की सिद्धी के लिए यम नियमों का पालन पूर्ण रूप से नहीं हुआ ।
उन में कोई कमी रह गई है । समाधि के लिए नियमों का पालन करना अति आवश्यक है । इनके बिना ध्यान और समाधि का सिद्ध होना बहुत कठिन है । झूठ , कपट , चोरी और व्यभिचार इत्यादि । दुराचार की वृत्तियों के नष्ट हुए बिना ध्यान और समाधि नहीं हो सकते ध्याना समाधि की इच्छा वाले पुरुषों को योग के आठों अंगों की साधना करनी चाहिए ।
जैसे बुनियाद के बिना मकान नहीं ठहर सकता , ऐसे ही यम नियमों के पालन किए बिना ध्यान और समाधि का सिद्ध होना असम्भव सा है बुद्धिमान पुरुषों को चाहिए कि वह निरन्तर यमों का पालन करते हुए ही नियमों का पालन करें ।
जो यम का पालन न कर के निमयों का ही पालन करते हैं , वह साधक पथ से गिर जाते हैं । योग में सिद्ध अवस्था चाहने वाले पुरुष को यम नियमों का पालन आवश्यमेव करना चाहिएं । इन के पालन से चोरी , झूठ और कपट आदि दुराचारों , काम , क्रोध , मोह और लोभ आदि दुर्गुणों का नाश हो कर , अन्तकरण की शुद्धता , पवित्रता होती है ।
उसे में उत्तम गुणों का समावेश हो कर ईष्ट देवता के दर्शन और आत्मा का साक्षात्कार होता है । साधक जैसा चाहता है , वैसा हो जाता है । यम – नियमों के पालन बिना समाधि तो दूर की बात है , अच्छी तरह से प्राणायाम भी नहीं होता । यह होना भी कठिन है ।
यत्न करने पर भी सफलता नहीं मिलती । काम , क्रोध , लोभ और मोह आदि दुर्गुण एवं झूठ कपट और चोरी व्यभिचार आदि दुराचार एवं प्राणायाम विषयक क्रिया के ज्ञान का अभाव ही सफलता में बड़ी बाधक है । इसलिए ध्यान साधना करने वाले साधकों के दोषों का नाश करने के लिए पहले यम – नियमों का पालन करके ही योग के अन्य अंगों का
दुराचार एवं प्राणायाम विषयक क्रिया के ज्ञान का अभाव ही सफलता में बड़ी बाधक है । इसलिए ध्यान साधना करने वाले साधकों के दोषों का नाश करने के लिए पहले यम – नियमों का पालन करके ही योग के अन्य अंगों का अनुष्ठान करना चाहिए ।
जो साधक इन आठ अंगों का अच्छी प्रकार पालन कर लेते हैं , उन का अन्तः करण शुद्ध होने पर ज्ञान की आपार दीप्ति हो जाती है । इसी से इच्छा अनुसार सिद्धियां प्राप्त हो सकती है । जो पुरुष सिद्धियां नहीं चाहते , वह क्लेश और कर्मों से छूट कर आत्मसाक्षात्कर कर लेते हैं । यम
नियम – आसन प्राणायाम प्रत्याहार- धारणा – ध्यान और समाधि यह योग के आठ अंग है । इनकी दो भूमिकाएं हैं ( 1 ) वहिरंग ( 2 ) अन्तरंग । उपर बताए हुए आठ अंगों में से पहले पांच को बहिरंग कहते हैं इन का विशेष तोर पर बाहर की क्रियाओं से ही सम्बन्ध है ।
शेष तीन धारणा , ध्यान और समाधि अन्तरंग हैं । इस का सम्बन्ध – केवल अन्त ‘ करण से होने के कारण उन को अन्तरंग कहते हैं । पातंजिल जी ने इन को संयम कहा है त्रयमेकत्र संयमः इन आठों अंगों का ध्यान कैसे करें संक्षिप्त विवेचन किया जाता है ।
अहिंसा – सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और ऊपरिग्रह इन पांचों का नाम ” यम है ” किसी भूत प्राणी को या अपने को भी मन वाणी शरीर द्वारा कभी किसी प्रकार थोड़ा भी कष्ट न पहुंचाने का नाम ” अहिंसा है ”
सत्य- अन्तःकरण इन्द्रियों द्वारा जैसा निश्चय किया हो हित की भावना से कपट रहित प्रिय शब्दों में वैसे का वैसा प्रकट करने का नाम ” सत्य है ”
अस्तेय- मन वाणी शरीर द्वारा किसी के हक को चुराना अस्तेय कहलाता है ।
ब्रह्मचर्य | मन – इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले काम विकार सर्वथा अभाव का नाम ” ब्रहचर्य ” है ।
अपरिग्रह शब्द – स्पेश रूप रस – गंध आदि किसी भी सामग्री का संग्रह न करना अपरिग्रह है । इन पांचों ” यमों ” का सवजाति – स्वदेश और सवकाल में पालन होने से और किसी भी नमित से इन के विपरीत हिंसा आदि दोषों के न घटने से इन की संज्ञा महाव्रत हो जाती है ।
जाति देशकाल समयानवच्छिनः सार्व भौमा माहव्रतम जाति- देशकाल और नमित से अववच्छिन्न यम का सार्व भौम पालन महाव्रत होता है । वर्ष मास भिन्न भिन्न खण्डों – देशों – प्रान्तों स्थानों एवं तीर्थ अतीर्थ- आदि के भेद से यम के पालन में किसी प्रकार का भेद न रखने से वह देशगत सार्वभौम महाव्रत होता है ।
पक्ष सप्ताह दिवस मुहूर्त – नक्षत्र एवं पर्व – अर्पव आदि के भेदों से यम के पालन से किसी प्रकार का भेद न रखना कालगत सार्वभौम माहव्रत होता है यज्ञ देवपूजन – श्राद- दान- विवाह न्यायालय अजीविका आदि के भेदों से यम के पालन में किसी प्रकार का भेद न रखना । समय ( निमित ) सार्वभौम महाव्रत है ।
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