पापका बाप। आध्यात्मिक ज्ञान
पापका बाप ।
एक प्रसिद्ध कहानी है — एक पण्डितजी काशीसे पढ़कर आये । ब्याह हुआ , स्त्री आयी । कई दिन हो गये । एक दिन स्त्रीने प्रश्न पूछा कि ‘ पण्डितजी महाराज ! यह तो बताओ कि पापका बाप कौन है ? ‘ पण्डितजी पोथी देखते रहे , पर पता नहीं लगा , उत्तर नहीं दे सके । अब बड़ी शर्म आयी कि स्त्री पूछती है पापका बाप कौन है ? हमने इतनी पढ़ाई की , पर पता नहीं लगा । वे वापस काशी जाने लगे । मार्गमें ही एक वेश्या रहती थी । उसने सुन रखा था कि पण्डितजी काशी पढ़कर आये हैं । उसने पूछा , ‘ कहाँ जा रहे हैं महाराज ? ‘ तो बोले — ‘ मैं काशी जा रहा हूँ । ‘ काशी क्यों जा रहे हैं ? आप बोले- क्या करूँ ? मेरे घरमें स्त्रीने यह प्रश्न पूछ लिया कि पापका बाप कौन है ? मेरेको उत्तर देना आया नहीं । अब पढ़ाई करके देखूगा कि पापका बाप कौन है ? ‘ वह वेश्या बोली – ‘ आप वहाँ क्यों जाते हो ? यह तो मैं यहीं बता सकती हूँ आपको ।
‘ बहुत अच्छी बात । इतनी दूर जाना ही नहीं पड़ेगा । ‘ आप घरपर पधारो । आपको पापका बाप मैं बताऊँगी । ‘ अमावस्याके एक दिन पहले पण्डितजी महाराजको अपने घर बुलाया । सौ रुपया सामने भेंट दे दिये और कहा कि ‘ महाराज ! आप मेरे यहाँ कल भोजन करो । ‘
पण्डितजीने कह दिया — ‘ क्या हर्ज है , कर लेंगे ! ‘ पण्डितजीके लिये रसोई बनानेका सब सामान तैयार कर दिया ।
अब पण्डितजी महाराज पधार गये और रसोई बनाने लगे तो वह बोली – ‘ देखो , पक्की रसोई तो आप पाते ही हो , कच्ची रसोई हरेकके हाथकी नहीं पाते । पक्की रसोई में बना दूँ , आप पा लेना ‘ ! ऐसा कहकर सौ रुपये पासमें और रख दिये । उन्होंने देखा कि पक्की रसोई हम दूसरोंके हाथकी लेते ही हैं , कोई हर्ज नहीं , ऐसा करके स्वीकार कर लिया । अब रसोई बनाकर पण्डितजीको परोस दिया ।
सौ रुपये और पण्डितजी महाराजके आगे रख दिये और नमस्कार करके बोली – ‘ महाराज ! जब मेरे हाथसे बनी रसोई आप पा रहे हैं तो मैं अपने हाथसे ग्रास दे दूँ । हाथ तो वे ही हैं , जिनसे रसोई बनायी है , ऐसी कृपा करो । ‘ पण्डितजी तैयार हो गये उसकी बातपर । उसने ग्रासको मुँहके सामने किया और उन्होंने ज्यों ही ग्रास लेनेके लिये मुँह खोला कि उठाकर मारी थप्पड़ जोरसे , और वह बोली – ‘ अभीतक आपको ज्ञान नहीं हुआ ? खबरदार ! जो मेरे घरका अन्न खाया तो !
आप जैसे पण्डितका मैं धर्म – भ्रष्ट करना नहीं चाहती । यह तो मैंने पापका बाप कौन है , इसका ज्ञान कराया है । ‘ रुपये ज्यों – ज्यों आगे रखते गये पण्डितजी ढीले होते गये । इससे सिद्ध क्या हुआ ? पापका बाप कौन हुआ ? रुपयोंका लोभ ! ‘ त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ‘
पर उपदेस कुसल बहुतेरे ।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥
दूसरोंको उपदेश देनेमें तो लोग कुशल होते हैं , परंतु उपदेशके अनुसार ही खुद आचरण करनेवाले बहुत ही कम लोग होते हैं । मनुष्य ख्याल नहीं करता कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये । औरोंको समझाते हुए पण्डित बन जाते हैं । अपना काम जब सामने आता है , तब पण्डिताई भूल जाते हैं , वह याद नहीं रहती ।
परोपदेशवेलायां शिष्टाः सर्वे भवन्ति हि ।
विस्मरन्तीह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुपस्थिते ॥
दूसरोंको उपदेश देते समय जो पण्डिताई होती है , वही अगर अपने काम पड़े , उस समय आ जाय तो आदमी निहाल हो जाय । जाननेकी कमी नहीं है , काममें लानेकी कमी है । हमें एक सज्जनने बड़ी शिक्षाकी बात कही कि आप व्याख्यान देते हुए साथ – साथ खुद भी सुना करो । इसका अर्थ यह हुआ कि मैं जो बातें कह रहा हूँ तो मेरे आचरणमें कहाँ कमी आती है ? कहाँ – कहाँ गलती होती है ? जो आदमी अपना कल्याण चाहे तो वह दूसरोंको सुननेके लिये व्याख्यान न दे । अपने सुननेके लिये व्याख्यान दे । लोग सुननेके लिये सामने आते हैं , उस समय कई बातें पैदा होती हैं । अकेले बैठे इतनी पैदा नहीं होती । इसलिये उन बातोंको स्वयं भी सुनें । केवल औरोंकी तरफ ज्ञानका प्रवाह होता है , यह गलती होती है ।
पण्डिताई पाले पड़ी ओ पूरबलो पाप ।
ओराँ ने परमोदताँ खाली रह गया आप ॥
पण्डित केरी पोथियाँ ज्यूँ तीतरको ज्ञान ।
ओराँ सगुन बतावहि आपा फंद न जान ।
करनी बिन कथनी कथे अज्ञानी दिन रात ।
कूकर ज्यूँ भुसता फिरे सुनी सुनाई बात ॥
हमें एकने बताया -‘कूकर ज्यू भुसता फिरे ‘ – इसका अर्थ यह हुआ कि एक कुत्ता यहाँ किसीको देखकर भुसेगा तो दूसरे मोहल्लेके कुत्ते भी देखा – देखी भुसने लग जायेंगे । एक – एकको सुनकर सब कुत्ते भुसने लग जायेंगे । अब उनको पूछा जाय कि किसको भुसते हो ? यह तो पता नहीं । दूसरा भुसता है न , इसलिये बिना देखे ही भुसना शुरू कर दिया । ऐसे ही दूसरा कहता है तो अपने भी कहना शुरू कर दिया । अरे , वह क्यों कहता है ? क्या शिक्षा देता है ? उसका क्या विचार है ? सुनी सुनायी बात कहना शुरू कर देनेसे बोध नहीं होता । इसलिए मनुष्य को अपनी जानकारी अपने आचरण में लानी चाहिए।