अपमान अमृत और बड़ाई विष है।
अपमान अमृत और बड़ाई विष है।
अपमान अमृत और बड़ाई विष है- यह कथन वास्तवमें सांसारिक दृष्टिकोण , अवधारणा तथा मान्यतासे बिलकुल विपरीत , असङ्गत तथा उलटा ही लगता है ; क्योंकि संसारमें अपमानको ही विष समझा जाता है । बड़ा अपमानसे हर कोई घबराता रहता है , विचलित होता रहता है , भागता रहता है , हमेशा बचना चाहता है ।
बड़ाईकी कामना , चाहना तथा लालसा हर कोई करता है ।
परंतु संसारका व्यवहार बहिरङ्ग तथा बहिर्मुखी है । इस संसार में सब कुछ बाहरी है , दृश्यमान है , दिखावा है , प्रदर्शन है । बहिरङ्गता और बहिर्मुखताकी प्रवृत्तिके कारण बड़ाई अमृत – सी प्रतीत होती है , परंतु वास्तवमें ऐसा प्रतीत ही होता है- ऊपरी तथा बाहरी तौरपर दिखलायी ही को पड़ता है । इसमें बाहरी आकर्षण है ।
इस बाहरी आकर्षणसे हि लोग आकर्षित तथा प्रभावित होते रहते हैं और बड़ाईके पान चकाचौंधमें चक्कर लगाते रहते हैं । मन – ही – मन गद्गद होते ‘ अ रहते हैं । बड़ाई पाकर फूले नहीं समाते हैं । अपनी बड़ाईकी भी बड़ाई ( आत्मप्रशंसा ) करते फिरते हैं ।
बड़ाई वास्तवमें सांसारिक चकाचौंधमात्र है जो वास्तवमें हमें हर पल , हर क्षण भ्रमित करती रहती है , भ्रमजालमें डालती रहती है । मनको उलझनमें डालती रहती है । अगर वास्तवमें संसारके आचरण तथा व्यवहारको देखा जाय तो वास्तविक प्रेम , स्नेह तथा सौहार्द है ही नहीं ।
यहाँ तथा इस संसारमें केवल स्वार्थ और मतलबका व्यवहार है । अगर मन , हृदय , अन्तःकरणमें द्वेष , ईर्ष्या तथा लोभ है तो भी अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये लोग बड़ाई करते फिरते हैं । अपना मतलब निकालनेके लिये मुँहपर बड़ाई करते हैं ।
अधिकांश स्थितिमें बड़ाई अपना मतलब निकालनेके लिये ही की जाती है । जिसमें लोभ होता है वह दूसरेकी बड़ाई मुँहपर ज्यादा करता है और अपना मतलब निकल जानेपर उपहास तथा व्यंग्य भी करता है ।
अपनेको चतुर तथा चालाक समझता है । जिसकी बड़ाई करके अपना काम निकालता है उसको मूर्ख समझता है और यह भी कहता फिरता है कि उसे मूर्ख बनाकर मैंने अमुक काम निकाल लिया ।
बड़ाई तो अन्तःकरणमें द्वेष रखनेवाले घोर शत्रु भी किया करते हैं । ये शत्रु चाहे तो अपना मतलब निकालनेके ; लिये करते हैं या फिर भ्रमित करनेके लिये करते हैं । शत्रु बड़ाईसे भ्रमजाल फैलाते हैं और अपने शिकारको उसमें फँसा करके बर्बाद कर देते हैं ।
वास्तवमें सांसारिक बड़ाई विष ही है जो बड़ाई पानेवालेको या बड़ाईसे घिरे रहनेवालेको बर्बाद ही करती है । इसलिये बड़ाईसे हमेशा बचना चाहिये । बड़ाई पानेवाला तथा बड़ाईकी लालसा रखनेवाला इतना है , अधिक बहिरङ्गकी दुनियामें भटक जाता है और इतना अधिक बहिर्मुखी हो जाता है कि अपने परिवार , पत्नी , बाल सा बच्चे , माता – पिता , कुटुम्बके वास्तविक कर्तव्य – कर्म ( धर्म ) ही को भी भूल जाता है ।
अपने अति निकटके लोगोंके से हितका भी ध्यान नहीं रख पाता है । वह हमेशा बड़ाई के पानेकी लालसामें पड़ा रहता है और यहाँ तक कि अपनी ‘ आत्मा ‘ के परिष्कार तथा संस्कारको भी भूल जाता है ।
अपमानपर विचार किया जाता है तो पाया जाता है कि जहाँ बड़ाईकी बात होती है वहींपर अपमानकी बात भी होती है । जिससे बड़ाई मिलती है , उसीसे अपमान भी मिलता है । काम निकलनेपर बड़ाई होती है और काम नहीं निकलनेपर उसी व्यक्तिके द्वारा अपमान भी किया जाता देखा है ।
प्रायः संसारमें पाया जाता है कि जहाँ और जिससे पहले बड़ाईकी स्थिति रही है , वहाँ और उससे अपमानकी भी स्थिति बन जाती है । अपमान अमृत इसलिये है कि अपमानसे हम अन्तरङ्गता तथा अन्तर्मुखताकी स्थितिकी ओर बढ़ते हैं ।
अन्तरङ्गताका विकास होनेपर हम अन्तर्मुखी बनते हैं । हमें अपने गुण – दोषका सही तथा सटीक आकलन करनेका अवसर मिलता है । अपमानसे हम बहिरङ्ग तथा बहिर्मुखी संसारमें भटकने और भ्रमित होनेसे बच जाते हैं ।
अपने बलाक अन्तः तथा अंदरकी ओर सोचनेका अवसर मिलता है । अपमानसे आत्मकेन्द्रित होकर भलीभाँति सोचते हैं । आत्मविकासकी बात सोचते हैं और करते हैं । आत्मा तथा आत्मीय लोगोंपर केन्द्रित रहना ही श्रेयस्कर है ।
आत्मा का परिष्कार और संस्कार ही सर्वोपरि है । – इसलिये अपमान अमृत है और बड़ाई विष है । बड़ाई चाहे दूसरेके द्वारा की जाती हो या चाहे अपने द्वारा ( आत्मप्रशंसा ) की जाती हो- दोनों ही हालतमें विष है । अपने द्वारा की जानेवाली बड़ाईसे लोगोंमें चिढ़ तथा ईर्ष्याका भाव पैदा होता है । अपनी छवि विपरीत बनती है चली जाती है । व्यक्तित्व हलका होता चला जाता है । इसीलिये भगवान् श्रीकृष्णने गीता
अपमानमें समदर्शी होनेके लिये कहा है
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥
सर्दी , गरमी और सुख – दुःखादिमें तथा मान और अपमानमें जिसके अन्तःकरणकी वृत्तियाँ भलीभाँति शान्त हैं , ऐसे स्वाधीन आत्मावाले पुरुषके ज्ञानमें सच्चिदानन्दघन परमात्मा सम्यक् प्रकारसे स्थित है अर्थात् उसके ज्ञानमें परमात्माके सिवा अन्य कुछ है ही नहीं ।
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Mahabharat Ke Patron Ka Adhyatmik Pratikatmak Swarup (Hindi Edition)
महाभारत’ को पांचवां वेद माना गया है और ग्रंथ की भूमिका में इसे चारों वेदों से भी अधिक गरिमावान घोषित {किया गया है (1.1.272)। ऋषियों ने इसे पुराण और इतिहास दोनों कहा है। (1.1.17,19) {किन्तु कथा के लगभग सभी प्रमुख पात्रों की उत्पत्ति दैविक अथवा परामानवीय बतलाई गई है जिससे इंगित होता है कि कथा को आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान {किया गया है। वस्तुत: हमारे प्राचीन वैदिक और पौराणिक साहित्य में मनुष्य के जीवन को ऊँचा उठाने के लिये , उसे आत्मनिष्ठ / सर्वनिष्ठ बनाने के लिए, कथाओं का स्वरूप इसी प्रकार का रचा गया है। इस हेतु ऋषियों ने कथाओं में पात्रों और घटनाओं को इतिहास, भूगोल, खगोल, अर्थशास्त्र, आयुविज्ञान, मनोविज्ञान आदि विभिन्न क्षेत्रों से लेकर उनका रूपान्तरण इस दॄष्टि से किया है कि कथा पाठक को आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ाने में सहायक हो।
Publisher : Punit Advertising Private Limited; 2020th edition (February 17, 2020)
Publication date : February 17, 2020
Language : Hindi
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