शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी की रोचक कहानी।
शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी की रोचक कहानी।
देवयानी
असुरों के पुरोहित शुक्राचार्य असुर नरेश वृषपर्वा के भी गुरु थे । वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा और शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी एक दिन अपनी अन्य सखियों के साथ जलक्रीड़ा के लिए गई । उन्होंने अपने कपड़े एक पेड़ के नीचे रखे थे । लड़कियों की जलक्रीड़ा के दौरान तेज हवा चली और कपड़े इधर – उधर हो गए ।
जलक्रीड़ा की समाप्ति के बाद जब लड़कियां अपने कपड़े पहनने लगीं तो उनके कपड़े बदल गए । देवयानी के कपड़े शर्मिष्ठा ने पहन लिए । यह देख कुछ परिहास मिश्रित उलाहने के स्वर में देवयानी ने शर्मिष्ठा से कहा , ” मेरी शिष्या होकर तू मेरा वस्त्र कैसे ले सकती है ? प्रतीत होता है तुझे सज्जनों के आचार – विचार का ज्ञान नहीं है ।
” यह सुन शर्मिष्ठा को क्रोध आ गया । उसने कहा , ” मेरे पिता राजा हैं , जबकि तुम्हारे पिता उनकी स्तुति करके गुजर बसर करने वाले हैं । तू भिखारी की बेटी है , जो भिक्षा लेकर गुजर बसर करता है । मेरे पिता की स्तुति की जाती है , जो सभी को दान देते हैं ।
किसी से कुछ नहीं लेते । भिखमंगे की बेटी ! तू मुझ पर क्यों अनावश्यक क्रोध कर रही है ? ” इसके बाद देवयानी क्रोधित होकर शर्मिष्ठा के शरीर से अपने वस्त्र खींचने लगी । इस खींचातानी में शर्मिष्ठा ने देवयानी को धक्का दे दिया और वह कुएं में गिर गई ।
शर्मिष्ठा क्रोध में थी अतः उसने कुएं में झांक कर भी नहीं देखा । यह सोच कर कि देवयानी कुएं में गिर कर मर गई होगी शर्मिष्ठा नगर लौट गई । शर्मिष्ठा और उसकी सखियों के जाने के कुछ देर बाद राजा ययाति वहां पहुंचे । वह किसी हिंसक पशु का पीछा कर रहे थे ।
घने वन में हिंसक पशु तो गायब हो गया और प्यास से व्याकुल राजा ययाति कुआं देख उसके पास गए । उन्होंने कुएं में झांक कर देखा तो पाया कि कुएं में पानी के स्थान पर घास , तिनकों और लताओं के ऊपर एक सुन्दर युवती है । राजा ययाति ने युवती का परिचय प्राप्त करने के बाद उसे अपना परिचय दिया ।
इसके बाद उन्होंने उसे दिलासा देकर बाहर निकाला । युवती ने बाहर निकलते समय अपना दाहिना हाथ राजा ययाति को दिया । कुएं से निकलने के बाद ययाति ने देवयानी से कहा , “ अब तुम निर्भय होकर जहां जाना चाहती हो जा सकती हो ।
” यह सुनकर देवयानी ने ययाति से कहा , “ तुमने मेरा दाहिना हाथ पकड़ा है , अतः अब तुम मेरे पति हो गए । अब मुझे अपने साथ ले चलो । ” ययाति ने कहा , “ सुमुखी , तुम ब्राह्मण कन्या हो मैं क्षत्रिय हूं इसलिए हमारा विवाह नहीं हो सकता । मैं तुम से विवाह कैसे कर सकता हूं ? तुम शुक्राचार्य की पुत्री हो जो जगतगुरु होने योग्य है ।
उनकी पुत्री का विवाह एक क्षत्रिय से कैसे हो सकता है ? ” देवयानी ने कहा , “ राजन ! अगर मेरे कहने पर तुम आज मुझे वरण करने को तैयार नहीं हो और मुझे साथ नहीं ले जाते हो तो मैं पिताजी की अनुमति लेकर तुम्हारा वरण करूंगी । तब तुम मुझे अपने साथ ले जाओगे । ” इसके बाद ययाति देवयानी से विदा लेकर चले गए । ययाति के जाने पर देवयानी घर नहीं गई । वहीं एक वृक्ष का सहारा लेकर खड़ी हो गई ।
पुत्री के घर लौटने में हुए विलम्ब से चिन्तित शुकराचार्य ने उसकी खोज में एक दासी भेजी । दासी पदचिन्हों के सहारे देवयानी तक पहुंची और उसने उसे वहां रोते हुए पाया । जब दासी ने देवयानी से उसके पिता की इच्छानुसार शीघ्र घर पहुंचने को कहा तो उसने दासी को पहले शर्मिष्ठा द्वारा किए गए दुर्व्यवहार के बारे में बताया और फिर कहा कि पिताजी से कह देना कि अब मैं वृषपर्वा के नगर में पैर नहीं रखूंगी ।
दासी ने नगर में लौटकर शुक्राचार्य को देवयानी के अपमान और निश्चय की जानकारी दी । दासी की बात सुनकर शुक्राचार्य फौरन पुत्री की खोज में निकले और थोड़े से प्रयास के बाद उसके पास पहुंच गए । पुत्री को सांत्वना देते हुए उन्होंने “ बेटी हमें अपने ही भले या बुरे कामों के कारण सुख या दुख मिलता है ।
प्रतीत होता है कि तुमसे कुछ बुरा कर्म हो गया था , जिसका फल तुम्हें मिल रहा है । ” कहा , देवयानी ने थोड़े क्रोध और दुख से कहा , “ पिताजी , मेरे भले या बुरे कर्मों की बात छोड़कर कृपा करके मेरी बात ध्यान से सुनिए । वृषपर्वा की पुत्री ने आज मुझसे बड़े घमंड से कहा कि आप चारण – भाटों की तरह असुरों के गुण गाते हैं ।
मैं स्तुति करने वाले और भीख मांगने वाले की पुत्री हूं । उसने मुझे बार – बार इस तरह के शब्द कह कर अपमानित किया । यही नहीं , उसने मुझे कुएं में धकेल कर मारने का प्रयास किया । क्या शर्मिष्ठा की यह बात सच है कि आप भिखारी हैं ?
” शुक्राचार्य ने कहा , ” देवयानी ! तू स्तुति करने वाले , भीख मांगने वाले या दान लेने वाले की बेटी नहीं है । मैं राजा की प्रशंसा करने वाला चारण – भाट नहीं हूं । मैं किसी की स्तुति नहीं करता । लोग मेरी स्तुति करते हैं । ” देवयानी को समझाते हुए शुक्राचार्य ने कहा , ” पुत्री ! जो मनुष्य दूसरों के कठोर वचन या अपनी निन्दा सह लेता है वह सम्पूर्ण विश्व को जीत लेता है ।
जो मनुष्य अपने क्रोध को अनियंत्रित घोड़े पर सवार घुड़सवार की तरह नियंत्रित कर लेता है , वह सच्चा सारथी है । वह नहीं जिसने लगाम तो पकड़ी है , लेकिन जिसके वश में घोड़ा नहीं है । पुत्री ! समझो जिसने क्रोध को जीत लिया उसने विश्व को जीत लिया । जिस प्रकार सांप अपनी केंचुली त्याग देता है उसी प्रकार मनुष्य को क्रोध त्याग देना चाहिए ।
” देवयानी ने कहा , “ पिताजी यद्यपि अभी मैं छोटी हूं , तथापि , धर्म अधर्म का अन्तर समझती हूं । मैं यह भी समझती हूं कि क्रोध से क्षमा उत्तम है । तथापि , उन लोगों के साथ रहना उचित नहीं है , जिन्हें मर्यादा और शिष्टाचार का ज्ञान नहीं है , जो दूसरों के सदाचार और कुल की निन्दा करते हैं ।
कटुवचन हृदय को चीर कर रख देते हैं । हथियारों से किए गए घाव तो भर जाते हैं , विष का प्रभाव भी धीरे – धीरे समाप्त हो जाता है और अग्नि से जला मनुष्य भी कुछ समय बाद ठीक हो जाता है , लेकिन कटु वचन से किए गए घाव नहीं भरते हैं ।
” • देवयानी की बात सुनकर शुक्राचार्य अत्यन्त क्रोधित होकर वृषपर्वा के पास गए । उन्होंने उससे कहा , ” पहले तुम्हारे सेवकों ने मेरे यहां विद्याध्ययन कर रहे निष्पाप और धर्मज्ञ कच की बार – बार हत्या की अब तुम्हारी पुत्री शर्मिष्ठा ने मेरी पुत्री देवयानी का न केवल कटु वचनों से अपमान किया है , बल्कि उसे कुएं में धकेल कर मारने का प्रयास किया है
, इस अपराध के लिए अब मैं तुम्हारे राज्य में नहीं रहूंगा । ”
शुक्राचार्य की यह धमकी सुनकर वृषपर्वा भौचक रह गया । उसने कहा , “ मुझे इस बारे में कुछ पता नहीं है , लेकिन अगर आप हमें छोड़ कर जाएंगे तो हम समुद्र में कूद कर जान दे देंगे या जलती आग में कूद पड़ेंगे । ” वृषपर्वा के ये वचन सुनकर शुकराचार्य ने कहा , “ आप कुछ भी करें , चाहे समुद्र में कूदें या जलती आग में कूदें , मैं अपनी पुत्री का अपमान और उसके प्रति किया गया कठोर व्यवहार सहन नहीं कर सकता ।
अगर आप मेरी पुत्री को संतुष्ट कर सकें तभी मैं आपके राज्य में रुकूंगा अन्यथा नहीं । ” वृषपर्वा और उसके दरबारी वन में देवयानी के पास गए और उससे क्षमा मांगी । देवयानी का गुस्सा शान्त नहीं हुआ था । उसने कहा , “ शर्मिष्ठा ने कहा था कि मैं एक भिखारी की पुत्री हूं ।
अतः अब वह अगर मेरी दासी बनना स्वीकार करे और मेरे विवाह के बाद भी मेरी सेवा करने का वचन दे मैं उसे क्षमा कर सकती हूं ।
देवयानी का विवाह
वृषपर्वा और शर्मिष्ठा इस पर सहमत हो गए । शर्मिष्ठा ने अपना दोष स्वीकार किया । उसने कहा , ” मेरे अपराध के कारण मेरे पिता के आचार्य को नहीं जाना चाहिए । मैं देवर की सेवा करने और दासी बनने को तैयार हूं । ” शर्मिष्ठा ने देवयानी से कहा , ” मैं दासी बनकर तुम्हारी सेवा करूंगी और तुम्हारे विवाह के बाद तुम्हारे साथ जाऊंगी ।
” कुछ समय बाद देवयानी फिर उसी वन में गई । संयोगवश ययाति भी शिकार के लिए वहां पहुंचे । ययाति ने खूबसूरत आभूषणों से सजी और दासियों से घिरी देवयानी को देखा । देवयानी ने एक बार फिर ययाति से अनुरोध किया , “ चूंकि तुमने मेरा दाहिना हाथ पकड़ा था अतः तुम मुझे अपनी पत्नी बनाओ ।
” ययाति शुक्राचार्य के भय से यह प्रतिलोम विवाह करने को तैयार न थे । अतः देवयानी ने दासी भेजकर अपने पिता को बुलाया । शुक्राचार्य के आगमन पर देवयानी ने कहा , ” पिताजी नहुष पुत्र राजा ययाति हैं । इन्होंने संकट के समय मेरा हाथ पकड़ा था । अत : मुझे इन्हें समर्पित कर दें । ” ये शुक्राचार्य ने ययाति से कहा , ” नहुष नंदन मेरी पुत्री ने पति रूप आपका वरण किया है ।
अतः इसे अपनी पटरानी के रूप में ग्रहण करो । वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा भी तुम्हें समर्पित है । इसका सदैव सम्मान करना किन्तु इसे कभी अपनी सेज पर न बुलाना । ” इसके बाद शास्त्रोक्त विधि से ययाति के साथ देवयानी का विवाह हो गया ।
समयानुसार देवयानी ने एक पुत्र को जन्म दिया । यह देख शर्मिष्ठा की इच्छा भी मां बनने थोड़ी हिचकिचाहट के बाद उसका निवेदन स्वीकार किया और शर्मिष्ठा भी गर्भवती हो गई । निर्धारित समय पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया ।
इस प्रकार कालान्तर में ययाति के देवयानी से दो और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र हो गए । कुछ समय बाद देवयानी को ययाति और शर्मिष्ठा के घनिष्ठ संबंधों का पता लग गया । इस पर वह नाराज होकर अपने पिता के पास चली गई ।
देवयानी से शर्मिष्ठा के तीन पुत्रों की जन्म कथा सुनकर शुक्राचार्य नाराज हो गए और उन्होंने ययाति को शाप दिया , “ तुमने जवानी के नशे में आकर यह अनुचित कार्य किया है । अतः तुम वृद्ध हो जाओ । ” शुक्राचार्य के शाप देते ही ययाति बूढ़े हो गए ।
ययाति ने शुक्राचार्य से कहा , ” मुनिवर मेरी सुखभोग की इच्छा तृप्त नहीं हुई है । अत : मुझे फिर से यौवन प्रदान कीजिए । ” शुक्राचार्य ने यह सोचकर कि ययाति ने देवयानी को कुएं से निकालकर जीवन दान दिया था कहा , ” मैं तुम्हें यह सुविधा देता हूं कि तुम किसी भी युवक का यौवन प्राप्त कर उसे अपना बुढ़ापा दे सकते हो । ”