कबीरदास रहीमदास के अनमोल दोहे।
रहीमदास जी के दोहे।
आसै पासै जो फिरै , निपटु पिसावै सोय ।
कीला से लगा रहै , ताको बिघन न होय ॥
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कबीरदास कहते हैं कि जो जीव इधर – उधर भटकता रहता है , वह चक्की में पिसने वाले दानों की तरह का होता है , परन्तु जो गुरु रूपी कीली के साथ एक निष्ठता से चिपक जाता है , उसे कोई बाधा नहीं आती । इस तरह गुरु के संरक्षण में एक निष्ठता से रहने वाला कभी कष्ट में नहीं होता ।
‘ कबीर ‘ तू काहे डरै , सिर पर सिरजनहार ।
हस्ती चढ़कर डोलिए , कूकर भुसै हजार ॥
– कबीरदास
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ईश्वर की कृपा के सहारे जीने वाले व्यक्ति को किसी का डर नहीं होता । कबीर जी कहते हैं कि जैसे हाथी पर चढ़े व्यक्ति का छोटे – छोटे कुत्ते कुछ नहीं बिगाड़ सकते , इसी तरह ईश्वर प्रेमी जीव का सांसारिक लोग कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ।
ज्यों नाचत कठपूतरी , करम नचावत गात ।
अपने हाथ ‘ रहीम ‘ ज्यों , नहीं अपने हाथ ॥
-रहीम
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संसार में सब लोग अपने – अपने कर्मों के वश में रहते हैं । जैसे कठपुतली नाचती है , उसी प्रकार इस जगत में प्राणी के कर्म उसको नाच नचाते हैं । रहीम कहते हैं कि जैसे अपने ही हाथ , अपने हाथ में नहीं होते , वैसे ही सभी कर्म अपने अधीन नहीं होते । उन पर मनुष्य का कोई वश नहीं चलता ।
जब तक बित्त न आपुने तब लग मित्र न कोय ।
‘ रहिमन ‘ अंबज अंबु बिनु , रवि नाहिंन हित होय ॥
-रहीम
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कवि रहीम कहते हैं कि कमल का जल के बिना सूर्य मित्र नहीं है । जैसे अपने पास जब तक धन नहीं है , तब तक संसार में कोई मित्र नहीं है । सूर्योदय होने से कमल खिलता है । यदि जल न हो तो कमल सूख जाता है ।
तब सूर्य भी कुछ नहीं कर सकता । ऐसे ही धनहीन से कोई मित्रता नहीं निभाता ।
तेरे अंदर सांच जो , बाहर कछु न जमाव ।
जाननहारा जानिहै , अंतरगति का भाव ॥
– कबीरदास
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जो सच्चा मनुष्य होता है , उसे सत्यता का बखान नहीं करना पड़ता । कबीरदास जी कहते हैं कि यदि हृदय में सत्य है तो उसे बाहर दिखाने की आवश्यकता नहीं है । ईश्वर सब अंदर की गति को , मन के भाव को जानता है । प्रभु अंतर्यामी है । उसे सब मालूम है कि कौन किस भाव से उसे मानता है ।
कै निदरहु कै आदरहु , सिंघहि स्वान सियार ।
हरष विषाद न केसरहि , कुंजरगंज निहार ।।
– तुलसीदास
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तुलसीदास कहते हैं कि महान लोग छोटे – मोटे सांसारिक लोगों की निंदा – स्तुति की परवाह नहीं करते । यदि कुत्ते और गीदड़ शेर की प्रशंसा करेंगे तो शेर प्रसन्न नहीं होगा और यदि वे उसकी निंदा करेंगे तो वह क्रुद्ध नहीं होगा , क्योंकि वह तो हाथी तक को हरा देता है । वह छोटे – मोटे जानवरों की परवाह नहीं करता ।
जहां गांठ तहं रस नहीं , यह ‘ रहीम ‘ जग जोय ।
मंडए तर की गांठ में , गांठ – गांठ रस होय ॥
-रहीम
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कवि रहीम कहते हैं कि जहां परस्पर ईर्ष्या आदि की भावना होती है , वहां आनंद नहीं होता । महुए के पेड़ की प्रत्येक गांठ में रस ही रस होता है , क्योंकि वे परस्पर जुड़ी रहती हैं । अभिप्राय यह है कि महुए के वृक्ष की प्रत्येक गांठ आपस में जुड़ी रहने से रसीली होती है , परन्तु मनुष्यों में आपस में ईर्ष्या की गांठ होने से नीरसता रहती है । अत : प्रेम में रस ही रस होता है ।
औगुन को तो ना गहै , गुन ही को ले बीन ।
घट – घट महकै मधू ज्यों , परमातम लै चीन्ह ।
– कबीरदास
साधु को गुणग्राही और परमात्मा का प्रेमी होना चाहिए । कबीरदास जी कहते हैं कि साधु को अवगुण छोड़कर गुणों को चुनना चाहिए । उसकी संगत से प्रत्येक प्राणी मधु की तरह सुवासित हो जाए और परमात्म तत्व को पहचानने लगे । जो सच्चा साधु होता है , उसकी संगत से मन प्रसन्न हो जाता है ।
पुन्य प्रीति पति प्रायतिउ , परमारथ पथ पांच ।
लहहिं सुजन परहरिहिं खल , सुनह सिखावन सांच ॥ –
तुलसीदास
पुण्य , प्रेम , पति , प्रतिष्ठा प्राप्ति ( लौकिक लाभ ) और परमार्थ का पथ – इन पांचों को सज्जन ग्रहण करते हैं और दुष्ट लोग त्याग देते हैं । इस सच्ची सीख को सुनो अर्थात् जो लोग पुण्य करते हैं , पवित्र प्रेम करते हैं , दूसरों की भलाई करते हैं , उन्हें निश्चित रूप से प्रतिष्ठा मिलती है , प्रशंसा मिलती है ।
पानी केरा बुदबुदा , अस मानुष की जात ।
देखत ही छिप जाएगा , ज्यों तारा परभात ॥
– कबीरदास
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कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का जीवन पानी के बुलबुले की तरह क्षणभंगुर है । जैसे भोर होते ही तारे छिप जाते हैं , ऐसे ही देखते ही देखते मानव जीवन समाप्त हो जाता है । जैसे पानी में बुलबुले उठते हैं और मिट जाते हैं . यही क्रम निरंतर चलता रहता है । इसी तरह मनुष्य जन्म लेते हैं और मरते रहते हैं ।
भक्ति गरीबी नवनता , सकै नहीं कोई मार । ‘
सहजो ‘ रूई कपास की , काटै ना तरवार ।
सहजोबाई –
सहजोबाई कहती हैं कि गरीबी इसलिए अच्छी है कि उसमें विनम्रता होती है । गरीब तो स्वयं को छोटा समझकर झुकता ही रहता है तथा झुकने वाले को कोई नहीं मारता , अकड़ने वाले पर सभी वार करते हैं । जैसे कपास की रुई कोमल होती है , इसलिए उसे तलवार भी नहीं काट सकती ।
दरिया ‘ संगत साध की , सहजै पलटै बंस |
कीट छोड़ मुक्ता चुगै , होय काग ते हंस || –
दरिया महाराज
दरिया महाराज कहते हैं कि साधु की संगत करने से आसानी से वंश पलट जाता है । कौआ कीड़े खाना छोड़कर हंस की तरह मोती चुनने लगता है । इस प्रकार वह कौए से हंस बन जाता है अर्थात् सत्संगति में बैठकर नीच प्रकृति का व्यक्ति भी सज्जन बनकर अपने वंश का उद्धार कर देता है । ‘
कबीर ‘ सोया क्या करै , जागन की कर चौंप ।
ये दम हीरालाल है , गिन – गिन गुरु को सौंप । –
कबीरदास
कबीरदास कहते हैं कि हे मनुष्य ! तू सो मत , जागकर अपने गुरु को समर्पण कर दे , क्योंकि तेरे जीवन की हर सांस , हर घड़ी हीरे और लाल की तरह कीमती है । इसलिए गिन – गिनकर इन्हें गुरु को सौंप दे जिससे वे तुझे ईश प्राप्ति के मार्ग पर लगा दें ।
आदर , मान , महत्व , सत , बालपन को नेह ।
यह चारों तबही गए , जबहिं कहा कछु देह । –
मलूकदास
मांगने से आदर , मान , महत्व , सत्य यहां तक कि बचपन का प्यार भी समाप्त हो जाता है । इसलिए मनुष्य को स्वामिभानी बनना चाहिए । स्वयं आर्थिक कष्ट या अन्य किसी भी प्रकार की परेशानी सह लेनी चाहिए , परन्तु किसी से मांगना नहीं चाहिए ।
‘ पलटू ‘ नेरे सांच के झूठे से है दूर ।
दिल में आवे है नजर , उस मालिक का नूर ॥ –
– पलटू
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साहब पलटू साहब कहते हैं कि जो मनुष्य सत्य के करीब है और झूठ से सदा दूर रहता है , उसके दिल में उस परम पिता परमात्मा का जलवा हो दिखाई पड़ता है । अतः सत्य का आचरण करना जीवन में परमात्मा के प्रकाश को भरना है ।
तुलसी ‘ जन जीवन अहित , कतहुं कोउ हित जानि ।
सोषक भानु कृसानु , महि , पवन एक धन दानि ॥ –
तुलसीदास
तुलसीदास जी कहते हैं कि जगत में जीवों का अहित करने वाले तो बहुत हैं , हित करने वाला कहीं कोई एकाध ही जानो । सूर्य , अग्नि , पृथ्वी , पवन सभी जल को सुखाने वाले हैं । देने वाला तो एक बादल है । अभिप्राय यह है कि संसार में दूसरों को सुख देने वाले बहुत कम और दुखदायी अनेक हैं ।
जाति न पूछो साध की , पूछि लीजिए ग्यान ।
मोल करो तलवार को पड़ा रहन दो म्यान ॥ “
– कबीरदास
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कबीरदास जी कहते हैं कि साधु की जात पूछकर क्या करना , उसके ज्ञान से लाभ उठाना चाहिए । जिस प्रकार तलवार ही युद्ध के मैदान में उपयोगी होती है , म्यान का कोई महत्व नहीं होता , उसी प्रकार साधु का ज्ञान के बिना कोई महत्व नहीं होता । उसकी जाति का भी कोई महत्व नहीं होता । साधु बनने के बाद मनुष्य का ज्ञान ही उसकी पहचान बन जाता है ।
जलहिं मिलाय रहीम ज्यों कियो आपु सम छीर ।
अंगवहि आपुहि आप त्यों , सकल आंच की मीर ॥
-रहीम
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कवि रहीम का कहना है कि जिस प्रकार जल दूध में मिलकर दूध बन जाता है , उसी प्रकार जीव का शरीर अग्नि में मिलकर अग्नि हो जाता है । कहने का अर्थ है कि जैसे दूध में मिलकर पानी पानी नहीं रहता , दूध बन जाता है , वैसे ही आग में मिलकर मानव शरीर आग ही बन जाता है । अतः इस शरीर का मोह उचित नहीं है ।
दै हैं धरम छोड़ाय ही , आन धर्म ले जाए ।
हरि गुरु तै बेमुख करें , लालच लोभ लगाय ।
– चरनदास
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लालच मनुष्य का धर्म छुड़ाकर उसे अधर्म की ओर ले जाता है । यह मनुष्य को भगवान और गुरु से भी विमुख कर देता है । लालची व्यक्ति को क्रोध के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता । उसे कर्तव्य , अकर्तव्य का विवेक भी नहीं रहता । यहां तक कि जो गुरु उसे ईश्वर का मार्ग दिखाते हैं , उन गुरु तथा ईश्वर से भी वह विमुख हो जाता है ।
कहि ‘ रहीम ‘ संपत्ति सगे , बनत बहुत बहु रीत ।
विपत्ति कसौटी जे कसे , ते ही सांचे 11
-रहीम
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कठिन परिस्थितियों में साथ देने वाले ही वास्तविक मित्र होते हैं । रहीम जी कहते हैं कि इस जगत में धन संपत्ति होने पर तो अनेक सगे संबंधी मित्र बन जाते हैं , परंतु विपत्ति रूपी कसौटी पर कसने से जो सच्चा साथ देने वाले होते हैं , वे ही सच्चे मित्र होते हैं । 1
मनि भाजन मधु पारई , पूरन अभी निहारि ।
का छांड़िअ का संग्रहिअ , कहउ विवेक विचारि ॥ –
तुलसीदास
शराब से भरे मदिरामय पात्र और अमृत से पूर्ण मिट्टी के बर्तन को देखकर विवेकपूर्ण विचारकर बताएं कि इनमें से किसे त्यागना और किसे ग्रहण करना चाहिए । तात्पर्य है कि उत्तम वस्तु सामान्य स्थान में हो तो भी उसे ग्रहण कर लेना चाहिए , परन्तु बुरी वस्तु उत्तम स्थान में हो तो उसका त्याग कर देना ही उत्तम रहता है ।
साध सरोवर राम जल , राग द्वेष कुछ नाय ।
‘ दरिया ‘ पीवै प्रीतकर , सो तिरपत हो जाय ॥
– दरिया महाराज
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– साधु रूपी सरोवर में रामरूपी जल है । राग – द्वेष कुछ नहीं है । जो प्रेम के साथ इस जल को पीता है , वही तृप्त हो जाता है अर्थात साधु की संगति में जाकर , राम के सान्निध्य का रस पीने को मिलता है । राम के रस को पीकर आनंद प्राप्त हो जाता है , जो अमर होता है ।
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